पांच अन्जानोंवाला घर (Panch anjanon wala ghar)

By: गोविन्द मिश्र (Govind Mishra)Material type: TextTextPublication details: Delhi Radhakrishna prakashan 2005Description: 163pISBN: 81836161034xSubject(s): Hindi novelDDC classification: H891.433 Summary: ‘‘राजन को अजीब-सा लगा - मनुष्यों की तरह घर भी बीतते हैं, वे भी चलते हैं, समय के साथ सरकते हैं...अलबत्ता धीरे-धीरे। कुछ समय बाद घर का कोई टुकड़ा कहीं का कहीं पहुँचा दिखता है; कहीं से टूटा, कहीं जा मिला। घरों की शक्लें बदल जाती हैं... कभी- कभी इतनी कि पहचान में नहीं आतीं। हम घरों को अपनी हदों में घेरने बेचैन रहते हैं पर उनकी स्वाभाविक - धीमी - चाल उस दिशा की ओर होती है जहाँ वे घेरों को तोड़, बाहर जमीन के खुले विस्तार से जा मिलें। इसलिए हर घर धीरे-धीरे खँडहर की तरफ सरकता होता है।’’ - इसी उपन्यास से करीब पचास वर्षों में फैली पाँच आँगनों वाला घर के सरकने की कहानी दरअसल तीन पीढ़ियों की कहानी है - एक वह जिसने 1942 के आदर्शों की साफ़्$ हवा अपने फेफड़ों में भरी, दूसरी वह जिसने उन आदर्शों को धीरे-धीरे अपनी हथेली से झरते देखा और तीसरी वह जो उन आदर्शों को सिर्फ पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ सकी। परिवार कैसे उखड़कर सिमटता हुआ करीब-करीब नदारद होता जा रहा है - व्यक्ति को उसकी वैयक्तिकता के सहारे अकेला छोड़कर! गोविन्द मिश्र के इस सातवें उपन्यास को पढ़ना अकेले होते जा रहे आदमी की उसी पीड़ा से गुज़रना है।
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‘‘राजन को अजीब-सा लगा - मनुष्यों की तरह घर भी बीतते हैं, वे भी चलते हैं, समय के साथ सरकते हैं...अलबत्ता धीरे-धीरे। कुछ समय बाद घर का कोई टुकड़ा कहीं का कहीं पहुँचा दिखता है; कहीं से टूटा, कहीं जा मिला। घरों की शक्लें बदल जाती हैं... कभी- कभी इतनी कि पहचान में नहीं आतीं। हम घरों को अपनी हदों में घेरने बेचैन रहते हैं पर उनकी स्वाभाविक - धीमी - चाल उस दिशा की ओर होती है जहाँ वे घेरों को तोड़, बाहर जमीन के खुले विस्तार से जा मिलें। इसलिए हर घर धीरे-धीरे खँडहर की तरफ सरकता होता है।’’ - इसी उपन्यास से करीब पचास वर्षों में फैली पाँच आँगनों वाला घर के सरकने की कहानी दरअसल तीन पीढ़ियों की कहानी है - एक वह जिसने 1942 के आदर्शों की साफ़्$ हवा अपने फेफड़ों में भरी, दूसरी वह जिसने उन आदर्शों को धीरे-धीरे अपनी हथेली से झरते देखा और तीसरी वह जो उन आदर्शों को सिर्फ पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ सकी। परिवार कैसे उखड़कर सिमटता हुआ करीब-करीब नदारद होता जा रहा है - व्यक्ति को उसकी वैयक्तिकता के सहारे अकेला छोड़कर! गोविन्द मिश्र के इस सातवें उपन्यास को पढ़ना अकेले होते जा रहे आदमी की उसी पीड़ा से गुज़रना है।

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